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रोज़ खुलने की अदा भी तो नहीं आती है | शाही शायरी
roz khulne ki ada bhi to nahin aati hai

ग़ज़ल

रोज़ खुलने की अदा भी तो नहीं आती है

शाहिद लतीफ़

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रोज़ खुलने की अदा भी तो नहीं आती है
इस तरफ़ बाद-ए-सबा भी तो नहीं आती है

सोचता हूँ कि मुलाक़ातों को महदूद करूँ
इन दरीचों से हवा भी तो नहीं आती है

अब तरीक़ा है यही मूँद लें अपनी आँखें
वर्ना दुनिया को हया भी तो नहीं आती है

उस की क़िस्मत में हैं बरसात के सारे तेवर
अपने हिस्से में घटा भी तो नहीं आती है