रोज़ हवा में उड़ने की फ़रमाइश है
ये मेरी मिट्टी में कैसी ख़्वाहिश है
चेहरा चेहरा ग़म है अपने मंज़र में
और आँखों के पीछे एक नुमाइश है
इक तेरी आवाज़ नहीं आती वर्ना
छोटे से इस घर में हर आसाइश है
अब के सावन आए तो तुम आ जाना
सारे बस्ती वालों की फ़रमाइश है
इक दिन शीश-महल से बाहर भी देखो
ख़ेमे की भी अपनी एक रिहाइश है
उन रंगों को सूरज खा जाता है 'क़ैस'
जिन रंगों में थोड़ी सी आलाइश है
ग़ज़ल
रोज़ हवा में उड़ने की फ़रमाइश है
सईद क़ैस