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रोज़-ए-वहशत है मिरे शहर में वीरानी की | शाही शायरी
roz-e-wahshat hai mere shahr mein virani ki

ग़ज़ल

रोज़-ए-वहशत है मिरे शहर में वीरानी की

बाक़ी अहमदपुरी

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रोज़-ए-वहशत है मिरे शहर में वीरानी की
अब कोई बात नहीं बात परेशानी की

मेरे दरिया कभी दरिया भी हुआ करते थे
अब भी आवाज़ सी आती है मुझे पानी की

आइना-ख़ाने के बाहर वो मुझे पूछते हैं
आइना-ख़ाने में क्या बात थी हैरानी की

अब ग़ज़ालाँ से कहो छुप के कहीं बैठ रहें
आमद आमद है किसी ग़ूल-ए-बयाबानी की

हम खुले घर के मकीनों की यही आदत है
हम न दरबान हुए और न दरबानी की

याद कर लेना बहत्तर की कहानी 'बाक़ी'
जंग छिड़ जाए किसी वक़्त अगर पानी की