रोज़-ए-मौलूद से साथ अपने हुआ ग़म पैदा
लाला-साँ दाग़ उठाने को हुए हम पैदा
हूँ मैं वो नख़्ल कि हर शाख़ मिरी आरा है
हूँ मैं वो शाख़ कि हों बर्ग-ए-तबरदम पैदा
मैं जो रोता हूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर हँसते हैं
शादी ओ ग़म से क्या है मुझे तौअम पैदा
चाहने वाले हज़ारों नए मौजूद हुए
ख़त ने उस गुल के किया और ही आलम पैदा
दर्द सर में हो किसी के तो मिरे दिल में हो दर्द
वास्ते मेरे हुआ है ग़म-ए-आलम पैदा
ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ हैं बे-ऐनीह लब-ए-ख़ंदाँ अपने
शादमानी में है याँ हालत-ए-मातम पैदा
आसमाँ शौक़ से तलवारों का मेंह बरसा दे
मह-ए-नौ ने तिरे अबरू का किया ख़म पैदा
काम अपना न हुआ जब कजी-ए-अबरू से
गेसू-ए-यार हुए दरहम-ओ-बरहम पैदा
शुबह होता है सदफ़ का मुझे हर ग़ुंचे पर
कहीं मोती न करें क़तरा-ए-शबनम पैदा
चुप रहो दूर करो मुँह न मिरा खुलवाओ
ग़ाफ़िलो ज़ख़्म-ए-ज़बाँ का नहीं मरहम पैदा
क़ुल्ज़ुम-ए-फ़िक्र में हर-चंद लगाए ग़ोते
दुर्र-ए-मूँ कोई यारों से हुआ कम पैदा
दोस्त ही दुश्मन-ए-जाँ हो गया अपना 'आतिश'
नोश-ए-दारों ने किया याँ असर-ए-सम पैदा
ग़ज़ल
रोज़-ए-मौलूद से साथ अपने हुआ ग़म पैदा
हैदर अली आतिश