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रोज़ दोहराएँगे जब शाम-ओ-सहर की तारीख़ | शाही शायरी
roz dohraenge jab sham-o-sahar ki tariKH

ग़ज़ल

रोज़ दोहराएँगे जब शाम-ओ-सहर की तारीख़

शाहिद जमाल

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रोज़ दोहराएँगे जब शाम-ओ-सहर की तारीख़
कैसे बदलेगी भला आप के घर की तारीख़

उन फ़ज़ाओं में कोई बढ़ के दिखाए तो कमाल
ख़ुद-ब-ख़ुद होगी रक़म बाज़ू-ए-पर की तारीख़

अपने बच्चों को न दें पाए कभी कोई ख़ुशी
सिर्फ़ हम लिखते रहे अपने हुनर की तारीख़

लूटने वाले कभी लूट न पाएँगे मुझे
मैं बता दूँगा अगर रख़्त-ए-सफ़र की तारीख़

अपनी तारीख़ पे इस दर्जा भरोसा हैं हमें
हम न देखेंगे इधर और उधर की तारीख़

लाख बेयार-ओ-मददगार फिरे साहिल पर
क़ैद रहती है सदफ़ में ही गुहर की तारीख़

'मीर'-ओ-'ग़ालिब' जिन्हें कहता है ज़माना 'शाहिद'
उन के हर शे'र में है फ़िक्र-ओ-नज़र की तारीख़