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रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा | शाही शायरी
rishta jigar ka KHun-e-jigar se nahin raha

ग़ज़ल

रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा

फ़ुज़ैल जाफ़री

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रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा
मौसम तवाफ़-ए-कूचा-ओ-दर का नहीं रहा

दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी
मंज़र मगर वो रक़्स-ए-शरर का नहीं रहा

मजबूर हो के झुकने लगा है यहाँ वहाँ
ये सर भी तेरे ख़ाक-ब-सर का नहीं रहा

घर का तो ख़ैर ज़िक्र ही क्या है कि ज़ेहन में
नक़्शा भी उस भरे-पुरे घर का नहीं रहा

बाँधा किसी ने रख़्त-ए-सफ़र इस तरह कि अब
दिल को 'फ़ुज़ैल' शौक़ सफ़र का नहीं रहा