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रिस रहा है मुद्दत से कोई पहला ग़म मुझ में | शाही शायरी
ris raha hai muddat se koi pahla gham mujh mein

ग़ज़ल

रिस रहा है मुद्दत से कोई पहला ग़म मुझ में

बिलाल अहमद

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रिस रहा है मुद्दत से कोई पहला ग़म मुझ में
रास्ता बनाता है आँसुओं का नम मुझ में

तुझ से यूँ शहंशाहा हो तो क्या शिकायत हो
गाह शोर करते हैं तेरे बेश ओ कम मुझ में

मैं वो लौह-ए-सादा हूँ जो तुझे अयाँ कर दे
रौशनी के ख़त में है इक नफ़स रक़म मुझ में

उम्र की उदासी के दूसरे किनारे पर
एक अजनबी चेहरा हो रहा है ज़म मुझ में

तय हुआ कि मरना तो लाज़मी नतीजा है
घूँट घूँट गिरता है ज़िंदगी का सम मुझ में