EN اردو
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है | शाही शायरी
rifaqat ki ye KHwahish kah rahi hai

ग़ज़ल

रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

;

रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
कई दिन से वो मुझ में रह रही है

पुकारा है कुछ ऐसे नाम मेरा
रगों में रौशनी सी बह रही है

तअ'ज्जुब है कि मेरी उँगलियों में
तिरी हाथों की ख़ुशबू रह रही है

समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
वो सरगोशी में क्या क्या कह रही है

तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
हमेशा मुझ में तह-दर-तह रही है

मैं उस की छाँव में हूँ 'तुर्क' लेकिन
वो मेरी धूप कैसे सह रही है