रिदा उस चमन की उड़ा ले गई
दरख़्तों के पत्ते हवा ले गई
जो हर्फ़ अपने दिल के ठिकानों में थे
बहुत दूर उन को सदा ले गई
चला मैं सऊबत से पुर राह पर
जहाँ तक मुझे इंतिहा ले गई
गई जिस घड़ी शाम-ए-सेहर-ए-वफ़ा
मनाज़िर से इक रंग सा ले गई
निशाँ इक पुराना किनारे पे था
उसे मौज-ए-दरिया बहा ले गई
'मुनीर' इतना हुस्न उस ज़माने में था
कहाँ उस को कोई बला ले गई
ग़ज़ल
रिदा उस चमन की उड़ा ले गई
मुनीर नियाज़ी