रिदा-ए-जान पे दोहरा अज़ाब बुनता हूँ
मैं रोज़ जागती आँखों में ख़्वाब बुनता हूँ
ख़याल-ए-हुस्न की मख़मल पे तार-ए-इम्काँ से
कभी गुलाब कभी माहताब बुनता हूँ
ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-पैहम से बुझ भी जाऊँ अगर
शब-ए-सियह में कोई आफ़्ताब बुनता हूँ
लिबास-ए-शौक़ तो मुद्दत का तार-तार हुआ
क़बा-ए-दर्द पे अब पेच-ओ-ताब बुनता हूँ
तिलिस्म-ए-ज़ुल्फ़ की लहरें डुबो ही देती हैं
कनार-ए-शाम जब मौज-ए-शराब बुनता हूँ
कभी मैं बाम-ए-मह-ए-नौ पे डालता हूँ कमंद
कभी मैं ख़ेमा-ए-शहर-ए-हिजाब बुनता हूँ
सुलग उठे है जो सहरा भी पा-ए-वहशत से
तो कार-गाह-ए-जुनूँ पर सहाब बुनता हूँ
जब एक ख़्वाब का मख़मल हो तार-तार 'नदीम'
मैं दश्त-ए-वहम में फिर इक सराब बुनता हूँ
ग़ज़ल
रिदा-ए-जान पे दोहरा अज़ाब बुनता हूँ
कामरान नदीम