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रिदा-ए-जान पे दोहरा अज़ाब बुनता हूँ | शाही शायरी
rida-e-jaan pe dohra azab bunta hun

ग़ज़ल

रिदा-ए-जान पे दोहरा अज़ाब बुनता हूँ

कामरान नदीम

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रिदा-ए-जान पे दोहरा अज़ाब बुनता हूँ
मैं रोज़ जागती आँखों में ख़्वाब बुनता हूँ

ख़याल-ए-हुस्न की मख़मल पे तार-ए-इम्काँ से
कभी गुलाब कभी माहताब बुनता हूँ

ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-पैहम से बुझ भी जाऊँ अगर
शब-ए-सियह में कोई आफ़्ताब बुनता हूँ

लिबास-ए-शौक़ तो मुद्दत का तार-तार हुआ
क़बा-ए-दर्द पे अब पेच-ओ-ताब बुनता हूँ

तिलिस्म-ए-ज़ुल्फ़ की लहरें डुबो ही देती हैं
कनार-ए-शाम जब मौज-ए-शराब बुनता हूँ

कभी मैं बाम-ए-मह-ए-नौ पे डालता हूँ कमंद
कभी मैं ख़ेमा-ए-शहर-ए-हिजाब बुनता हूँ

सुलग उठे है जो सहरा भी पा-ए-वहशत से
तो कार-गाह-ए-जुनूँ पर सहाब बुनता हूँ

जब एक ख़्वाब का मख़मल हो तार-तार 'नदीम'
मैं दश्त-ए-वहम में फिर इक सराब बुनता हूँ