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रेज़ा रेज़ा तिरे चेहरे पे बिखरती हुई शाम | शाही शायरी
reza reza tere chehre pe bikharti hui sham

ग़ज़ल

रेज़ा रेज़ा तिरे चेहरे पे बिखरती हुई शाम

ज़िया ज़मीर

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रेज़ा रेज़ा तिरे चेहरे पे बिखरती हुई शाम
क़तरा क़तरा मिरी पलकों पे उतरती हुई शाम

लम्हा लम्हा मिरे हाथों से सरकता हुआ दिन
और आसेब-ज़दा दिल में उतरती हुई शाम

सुब्ह का ख़्वाब मगर ख़्वाब अजब जाँ-लेवा
मेरे पहलू में सिसकती हुई मरती हुई शाम

साथ साहिल पे गुज़रते हुए देखी थी कभी
याद है अब भी समुंदर में उतरती हुई शाम

मैं भी तन्हा हूँ तो ये शाम भी तन्हा तन्हा
यानी तन्हाई में कुछ और निखरती हुई शाम