रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई
तेरी दर्द-गुसारी से भी रूह की उलझन कम न हुई
शाख़ से टूट के बे-हुरमत हैं वैसे भी बे-हुरमत थे
हम गिरते पत्तों पे मलामत कब मौसम मौसम न हुई
नाग-फनी सा शोला है जो आँखों में लहराता है
रात कभी हमदम न बनी और नींद कभी मरहम न हुई
अब यादों की धूप छाँव में परछाईं सा फिरता हूँ
मैं ने बिछड़ कर देख लिया है दुनिया नर्म क़दम न हुई
मेरी सहरा-ज़ाद मोहब्बत अब्र-ए-सियह को ढूँढती है
एक जनम की प्यासी थी इक बूँद से ताज़ा-दम न हुई
ग़ज़ल
रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई
साक़ी फ़ारुक़ी