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रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए | शाही शायरी
ret ke shanon pe shabnam ki nami raat gae

ग़ज़ल

रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए

मुज़फ़्फ़र अबदाली

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रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए
और कुछ तेज़ हुई तिश्ना-लबी रात गए

बाम ओ दर जाग उठे शौक़ ने आँखें खोलीं
दिल की दहलीज़ पे दस्तक सी हुई रात गए

मेरे सीने में किसी आग का जलना दिन भर
उस के होंटों पे वो हल्की सी हँसी रात गए

इक इसी ख़्वाब ने क्या क्या न तमाशा देखा
नींद के हाथ में जादू की छड़ी रात गए

फ़त्ह पाई है सराबों पे मिरे अश्कों ने
ग़म ने बाँधी है कई बार नदी रात गए