रवाँ-दवाँ नई तहज़ीब का सफ़र रक्खो
मगर निगाह को मंज़िल से बा-ख़बर रक्खो
सदाक़तों की हिफ़ाज़त का हौसला हो अगर
तो अपने हाथों से नेज़े पे अपना सर रक्खो
तुम्हारी नस्ल की परवाज़ में ख़लल न पड़े
मत उन के सामने अपने शिकस्ता पर रक्खो
न ग़म करो जो कड़ी धूप का सफ़र है हयात
जिलौ में अपने कोई साया-ए-शजर रक्खो
सहर के भूले सर-ए-शाम लौट आएँगे
लवें बढ़ा के चराग़ों की बाम पर रक्खो
जो सच लिखोगी तो फिर कुछ न लिख सकोगी 'नसीम'
क़लम में मा'नी बदलने का भी हुनर रक्खो
ग़ज़ल
रवाँ-दवाँ नई तहज़ीब का सफ़र रक्खो
मलिका नसीम