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रवाँ-दवाँ नई तहज़ीब का सफ़र रक्खो | शाही शायरी
rawan-dawan nai tahzib ka safar rakkho

ग़ज़ल

रवाँ-दवाँ नई तहज़ीब का सफ़र रक्खो

मलिका नसीम

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रवाँ-दवाँ नई तहज़ीब का सफ़र रक्खो
मगर निगाह को मंज़िल से बा-ख़बर रक्खो

सदाक़तों की हिफ़ाज़त का हौसला हो अगर
तो अपने हाथों से नेज़े पे अपना सर रक्खो

तुम्हारी नस्ल की परवाज़ में ख़लल न पड़े
मत उन के सामने अपने शिकस्ता पर रक्खो

न ग़म करो जो कड़ी धूप का सफ़र है हयात
जिलौ में अपने कोई साया-ए-शजर रक्खो

सहर के भूले सर-ए-शाम लौट आएँगे
लवें बढ़ा के चराग़ों की बाम पर रक्खो

जो सच लिखोगी तो फिर कुछ न लिख सकोगी 'नसीम'
क़लम में मा'नी बदलने का भी हुनर रक्खो