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रौशनी तक रौशनी का रास्ता कह लीजिए | शाही शायरी
raushni tak raushni ka rasta kah lijiye

ग़ज़ल

रौशनी तक रौशनी का रास्ता कह लीजिए

समद अंसारी

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रौशनी तक रौशनी का रास्ता कह लीजिए
रात को शाम-ओ-सहर का फ़ासला कह लीजिए

दे गई कितनी बहारें एक फ़स्ल-ए-आरज़ू
रंग-ओ-बू को मौसमों का ख़ूँ-बहा कह लीजिए

गूँजती है उम्र-ए-वीराँ में तमन्ना की थकन
हर्फ़-ए-ग़म को गुम्बद-ए-जाँ की सदा कह लीजिए

कुंद आख़िर कर गईं तलवार को ख़ूँ-रेज़ियाँ
दोस्ती को दुश्मनी की इंतिहा कह लीजिए

बाल-ओ-पर खुलते नहीं जिन के नशेमन की तरफ़
उन उड़ानों को हवाओं की ग़िज़ा कह लीजिए

मौसम-ए-गुल देखिए खुलते दरीचों के तले
बाम-ओ-दर को शहर की आब-ओ-हवा कह लीजिए

कुछ नहीं मिलता 'समद' पत्थर को तेशे के सिवा
आज़री को आज़री नाम-ए-ख़ुदा कह लीजिए