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रौशनी साया-ए-ज़ुल्मात से आगे न बढ़ी | शाही शायरी
raushni saya-e-zulmat se aage na baDhi

ग़ज़ल

रौशनी साया-ए-ज़ुल्मात से आगे न बढ़ी

शकील बदायुनी

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रौशनी साया-ए-ज़ुल्मात से आगे न बढ़ी
ज़िंदगी शम्अ की इक रात से आगे न बढ़ी

अपनी हस्ती का भी इंसान को इरफ़ाँ न हुआ
ख़ाक फिर ख़ाक थी औक़ात से आगे न बढ़ी

नाम बद-नाम हुआ सिन्फ़-ए-ग़ज़ल का लेकिन
शाइरी रस्म-ओ-रिवायात से आगे न बढ़ी

बे-तकल्लुफ़ हुई तज्दीदा-ए-मुलाक़ात मगर
वो भी इक तिश्ना मुलाक़ात से आगे न बढ़ी

ज़ुल्फ़-बर-दोश वो इक बार तो आए थे 'शकील'
फिर कोई रात भी उस रात से आगे न बढ़ी