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रौशनी रंगों में सिमटा हुआ धोका ही न हो | शाही शायरी
raushni rangon mein simTa hua dhoka hi na ho

ग़ज़ल

रौशनी रंगों में सिमटा हुआ धोका ही न हो

सरमद सहबाई

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रौशनी रंगों में सिमटा हुआ धोका ही न हो
मैं जिसे जिस्म समझता हूँ वो साया ही न हो

आईना टूट गया चुनता हूँ रेज़ा रेज़ा
इसी आईने में मेरा कहीं चेहरा ही न हो

मैं तो दीवार के इस पार रवाँ हूँ कब से
कोई दीवार के उस पार भी चलता ही न हो

वो जो सुनता है मिरी बात बड़े ग़ौर के साथ
बाद जाने के मिरे मुझ पे वो हँसता ही न हो

जागती आँखों में क्यूँ फैलता जाता है ख़ला
खा गई है जिसे दूरी तिरा रस्ता ही न हो

मोड़ हर राह पे पाँव से लिपट जाते हैं
वो मुझे छोड़ के चल दे कहीं ऐसा ही न हो

उस के मिलने पे भी महसूस हुआ है 'सरमद'
उस ने देखा ही न हो मैं ने बुलाया ही न हो