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रौशनी की डोर थामे ज़िंदगी तक आ गए | शाही शायरी
raushni ki Dor thame zindagi tak aa gae

ग़ज़ल

रौशनी की डोर थामे ज़िंदगी तक आ गए

इफ़्तिख़ार फलक काज़मी

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रौशनी की डोर थामे ज़िंदगी तक आ गए
चोर अहद-ए-सामरी के जल-परी तक आ गए

वाइज़ान-ए-ख़ुश-हवस की झिड़कियाँ सुनते हुए
ला-शुऊरी तौर पर हम सरख़ुशी तक आ गए

ढोल पीटा जा रहा था और ख़ाली पेट हम
हँसते-गाते थाप सुनते ढोलची तक आ गए

वाहिमों की ना-तमामी का इलाक़ा छोड़ कर
कुछ परिंदे हाथ बाँधे सब्ज़गी तक आ गए

भाई बहनों की मोहब्बत का नशा मत पोछिए
बे-तकल्लुफ़ हो गए तो गुदगुदी तक आ गए

चाक-ए-तोहमत पर घुमाया जा रहा था इश्क़ को
जब हमारे अश्क ख़्वाब-ए-ख़ुद-कुशी तक आ गए

गालियाँ बकने लगे ग़ुस्से हुए लड़ने लगे
रक़्स करते करते हम भी ख़ुद-सरी तक आ गए

ऐ हसीं लड़की तुम्हारे हुस्न के लज़्ज़त परस्त
काफ़िरी से सर बचा कर शाइ'री तक आ गए