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रौनक़ तिरे कूचे की बढ़ाने चले आए | शाही शायरी
raunaq tere kuche ki baDhane chale aae

ग़ज़ल

रौनक़ तिरे कूचे की बढ़ाने चले आए

असग़र राही

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रौनक़ तिरे कूचे की बढ़ाने चले आए
अरबाब-ए-जुनूँ हश्र उठाने चले आए

अब और नुमाइंदगी-ए-शब न करो तुम
हम परचम-ए-ख़ुरशीद उड़ाने चले आए

जब गर्मी-ए-शबनम से बदन जलने लगा है
हम आग के दरिया में नहाने चले आए

जो लोग मिरा नक़्श-ए-क़दम चूम रहे थे
अब वो भी मुझे राह दिखाने चले आए

जिन से मुझे फूलों की थी उम्मीद वही लोग
काँटे मिरी राहों में बिछाने चले आए

ये गर्दिश-ए-हालात की है ज़र्रा-नवाज़ी
वो ख़ुद ही मुझे आज मनाने चले आए

क्या ये भी कोई अंजुमन-ए-माह-वशाँ है
'राही' भी ग़ज़ल अपनी सुनाने चले आए