रस उन आँखों का है कहने को ज़रा सा पानी
सैंकड़ों डूब गए फिर भी है इतना पानी
आँख से बह नहीं सकता है भरम का पानी
फूट भी जाएगा छाला तो न देगा पानी
चाह में पाऊँ कहाँ आस का मीठा पानी
प्यास भड़की हुई है और नहीं मिलता पानी
दिल से लौका जो उठा आँख से टपका पानी
आग से आज निकलते हुए देखा पानी
किस ने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम कर आई घटा टूट के बरसा पानी
फैलती धूप का है रूप लड़कपन का उठान
दोपहर ढलते ही उतरेगा ये चढ़ता पानी
टिकटिकी बाँधे वो तकते हैं मैं इस घात में हूँ
कहीं खाने लगे चक्कर न ये ठहरा पानी
कोई मतवाली घटा थी कि जवानी की उमंग
जी बहा ले गया बरसात का पहला पानी
हाथ जल जाएगा छाला न कलेजे का छुओ
आग मुट्ठी में दबी है न समझना पानी
रस ही रस जिन में है फिर सैल ज़रा सी भी नहीं
माँगता है कहीं उन आँखों का मारा पानी
न सता उस को जो चुप रह के भरे ठंडी साँस
ये हवा करती है पत्थर का कलेजा पानी
ये पसीना वही आँसू हैं जो पी जाते थे हम
'आरज़ू' लो वो खुला भेद वो टूटा पानी
ग़ज़ल
रस उन आँखों का है कहने को ज़रा सा पानी
आरज़ू लखनवी