EN اردو
रक़्स यक नूर कभी सैल-ए-बला देखता हूँ | शाही शायरी
raqs yak nur kabhi sail-e-bala dekhta hun

ग़ज़ल

रक़्स यक नूर कभी सैल-ए-बला देखता हूँ

सहबा अख़्तर

;

रक़्स यक नूर कभी सैल-ए-बला देखता हूँ
ज़ेहन पर छाई हुई धुँद में क्या देखता हूँ

तुझ को महदूद ख़द-ओ-ख़ाल में कर रक्खा है
मैं कहाँ तुझ को अभी तेरे सिवा देखता हूँ

नर्म मिट्टी से उठे हैं वो कुँवारे जज़्बात
जिन को पहने हुए फूलों की क़बा देखता हूँ

आँख हाइल है तिरी दीद में अच्छा होगा
आज ये आख़िरी पर्दा भी उठा देखता हूँ

क्यूँ न उस पर्दा-नशीं को हो तकल्लुम में हिजाब
मैं तो आवाज़ को भी चेहरा-नुमा देखता हूँ

मैं वो काफ़िर हूँ कि इस ज़ुल्मत-ए-दिल के हाथों
हर चमकते हुए चेहरे में ख़ुदा देखता हूँ

फिर कोई कुंज-ए-अमाँ दश्त-ए-सुख़न में 'सहबा'
आज फिर दिल को परेशान-ए-नवा देखता हूँ