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रक़्स-ए-ज़मीं को गर्दिश-ए-अफ़्लाक चाहिए | शाही शायरी
raqs-e-zamin ko gardish-e-aflak chahiye

ग़ज़ल

रक़्स-ए-ज़मीं को गर्दिश-ए-अफ़्लाक चाहिए

नरजिस अफ़रोज़ ज़ैदी

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रक़्स-ए-ज़मीं को गर्दिश-ए-अफ़्लाक चाहिए
नक़्श-ए-क़दम को फ़र्श-ए-ख़स-ओ-ख़ाक चाहिए

मिट्टी तो दस्त-ए-कूज़ा-गराँ में है देर से
बर्तन में ढालने के लिए चाक चाहिए

हम ऐसे सादा-लौह से क्या माँगती है ज़ीस्त
इस को हरीफ़ भी कोई चालाक चाहिए

कम-फ़ुर्सती का उन की मुझे भी लिहाज़ है
अहवाल-ए-दिल को दीदा-ए-नमनाक चाहिए

ठहरे हुए हैं अश्क हवाओं की आँख में
मौसम को अब के वहशत-ए-बेबाक चाहिए