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रक़ाबतों की तरह से हम ने मोहब्बतें बे-मिसाल की हैं | शाही शायरी
raqabaton ki tarah se humne mohabbaten be-misal ki hain

ग़ज़ल

रक़ाबतों की तरह से हम ने मोहब्बतें बे-मिसाल की हैं

शीश मोहम्मद इस्माईल आज़मी

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रक़ाबतों की तरह से हम ने मोहब्बतें बे-मिसाल की हैं
मगर ख़मोश अब जो हो गए हैं इनायतें माह ओ साल की हैं

कहाँ से दुनिया को आ गए हैं ये तौर उस के तरीक़ उस के
मुज़ाहिरा सब गुरेज़ का है अलामतें सब विसाल की हैं

नज़र उठाओ तो हर तरफ़ है बहिश्त-ए-हुस्न-ओ-जमाल लेकिन
कहाँ वो अंदाज़ उस का लहजा शबाहतें ख़द्द-ओ-ख़ाल की हैं

निगार-ए-फ़न है कि माँगती है लहू से हर-दम ख़िराज अपना
हमारा क्या साथ दे सकेंगी जो शोहरतें बे-कमाल की हैं

ये झुकती शाख़ें सरकते साए महकती ख़ुश्बू बहकते बादल
उठो इन्हें जावेदाँ तो कर लें कि साअतें ये विसाल की हैं

ये ख़ुद-कलामी ये बे-नियाज़ी ये शहर वालों से दूर रहना
अमानतें 'आज़मी' यक़ीनन किसी ग़म-ए-ला-ज़वाल की हैं