रंज से वाक़िफ़ ख़ुशी से आश्ना होने न दे
ज़िंदगी को अपने मक़्सद से जुदा होने न दे
इश्क़ जब तक तय न कर ले मंज़िलें ईसार की
दर्द की लज़्ज़त से दिल को आश्ना होने न दे
और जो कुछ हो हमें मंज़ूर है यारब मगर
आदमी को आदमी का आसरा होने न दे
दर्द-ए-दिल कहिए जिसे उस की तो ये पहचान है
भूल कर जो हाथ सीने से जुदा होने न दे
इश्क़ जिस दिल में जड़ें अपनी जमा ले एक बार
उम्र-भर नख़्ल-ए-तमन्ना को हरा होने न दे
नाख़ुदा की कोशिशें बे-कार तदबीरें अबस
पार जब मंजधार से बेड़ा ख़ुदा होने न दे
राह-ए-हस्ती में जो 'जाफ़र' हर क़दम पर मोड़ हैं
हर कस-ओ-ना-कस को अपना रहनुमा होने न दे

ग़ज़ल
रंज से वाक़िफ़ ख़ुशी से आश्ना होने न दे
जाफ़र अब्बास सफ़वी