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रंज-ओ-राहत वस्ल-ओ-फुर्क़त होश-ओ-वहशत क्या नहीं | शाही शायरी
ranj-o-rahat wasl-o-furqat hosh-o-wahshat kya nahin

ग़ज़ल

रंज-ओ-राहत वस्ल-ओ-फुर्क़त होश-ओ-वहशत क्या नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

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रंज-ओ-राहत वस्ल-ओ-फुर्क़त होश-ओ-वहशत क्या नहीं
कौन कहता है कि रहने की जगह दुनिया नहीं

अहल-ए-ग़म तुम को मुबारक ये फ़ना आमादगी
लेकिन ईसार-ए-मोहब्बत जान दे देना नहीं

हुस्न सर-ता-पा तमन्ना इश्क़ सर-ता-सर ग़ुरूर
इस का अंदाज़ा नियाज़-ओ-नाज़ से होता नहीं

एक हालत पर ज़माने में न गुज़री इश्क़ की
दर्द की दुनिया भी अब वो दर्द की दुनिया नहीं

जिस के शो'लों से थी कल तक गर्मी-ए-बज़्म-ए-हयात
आज इस ख़ाकिस्तर-ए-दिल से धुआँ उठता नहीं

मैं अदम अंदर अदम मैं हूँ जहाँ अंदर जहाँ
एक ही दुनिया हो मेरी ऐ 'फ़िराक़' ऐसा नहीं