रंज है उस रंज से हम को तो ग़म उस ग़म से है
जो शिकायत हम को उन से है वो उन को हम से है
क्या पड़ी है फिर किसी के वास्ते रोता है क्यूँ
आबरू-ए-इश्क़ अपने दीदा-ए-पुर-नम से है
झूटे मुँह कोई तसल्ली भी नहीं देता कभी
फिर ये क्यूँ साहब सलामत अपनी इक आलम से है
दुश्मनों का दो ही दिन में सब भरम खुल जाएगा
उन की सारी शान-ओ-शौकत एक मेरे दम से है
हाथ जोड़े मिन्नतें कीं ख़ैर वो तो मन गए
और लोगों को भी अब ऐसी तमन्ना हम से है
इस मज़ाक़-ए-ख़ास के भी लोग देखे हैं कहीं
आप की भी जान-पहचान आख़िर इक आलम से है
सब 'सफ़ी' की आह-ए-पुर-बे-साख़ता कहते हैं वाह
उस का रोना भी मगर कुछ ताल से है सम से है

ग़ज़ल
रंज है उस रंज से हम को तो ग़म उस ग़म से है
सफ़ी औरंगाबादी