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रंगत ये रुख़ की और ये आलम नक़ाब का | शाही शायरी
rangat ye ruKH ki aur ye aalam naqab ka

ग़ज़ल

रंगत ये रुख़ की और ये आलम नक़ाब का

जलील मानिकपूरी

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रंगत ये रुख़ की और ये आलम नक़ाब का
दामन में कोई फूल लिए है गुलाब का

चारों तरफ़ से उस पे निगाहों का बार है
मुश्किल है उन को रुख़ से उठाना नक़ाब का

तस्कीन-ए-ख़ाक देते हैं रख कर जिगर पे हाथ
पहलू बदल रहे हैं मिरे इज़्तिराब का

मुद्दत हुई वही है ज़माने का इंक़िलाब
नक़्शा खिंचा हुआ है मिरे इज़्तिराब का

बचपन कहाँ तक उन की उमंगों को रोकता
आख़िर को रंग फूट ही निकला शबाब का

रोना ख़ुशी का रोती है बुलबुल बहार में
छिड़काव हो रहा है चमन में गुलाब का

झलकी दिखा के और वो बिजली गिरा गए
अच्छा किया इलाज मिरे इज़्तिराब का

ख़ाक-ए-चमन पे शबनम ओ गुल का अजब है रंग
साग़र किसी से छूट पड़ा है शराब का

खोए हुए हैं शाहिद ओ मअ'नी की धुन में हम
ये भी 'जलील' एक जुनूँ है शबाब का