रंग ख़ुश्बू और मौसम का बहाना हो गया
अपनी ही तस्वीर में चेहरा पुराना हो गया
शेल्फ़ पर रक्खी किताबें सोचती हैं रात दिन
घर से दफ़्तर का सफ़र कितना सुहाना हो गया
किस क़दर शोहरत है इन हँसते हुए लम्हात में
आँख से गुज़रा हर इक मंज़र पुराना हो गया
अब मिरी तन्हाई भी मुझ से बग़ावत कर गई
कल यहाँ जो कुछ हुआ था सब फ़साना हो गया
याद आती जब कभी एहसास की नीलम-परी
घर के काले देव का क़िस्सा पुराना हो गया
ग़ज़ल
रंग ख़ुश्बू और मौसम का बहाना हो गया
खालिद गनी