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रंग और रूप के प्रदीप में खोने दे मुझे | शाही शायरी
rang aur rup ke pardip mein khone de mujhe

ग़ज़ल

रंग और रूप के प्रदीप में खोने दे मुझे

नासिर शहज़ाद

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रंग और रूप के प्रदीप में खोने दे मुझे
ख़ुद को चाहत की चढ़ी रौ में डुबोने दे मुझे

तू अगर ख़ुश है तो जा क़ाफ़िया-पैमाई कर
शेर को रूह की लड़ियों में पिरोने दे मुझे

प्रीत का अंत बिछड़ना है मगर और अभी
अपनी बाहोँ के कँवल-कुंड में सोने दे मुझे

चूम कर इस के मधुर होंटों की रस-वन्त लवें
ज़ेहन को नश्शों भरी मय से भिगोने दे मुझे

कष्ट वाजिब न सही कलियाँ तो काँटे ही क़ुबूल
नई रुत में नए एहसास को बोने दे मुझे

तेरा रिश्ता है फ़लक से तो ज़मीं को न उजाड़
नर्म मिट्टी की महक मन में समोने दे मुझे

'हाफ़िज़'-ओ-'मीर' से निस्बत भी बजा लेकिन अब
ख़ित्ता-ए-पाक की इस ख़ाक का होने दे मुझे

याद आ जाए न जाने उसे बचपन की लगन
इसी जंगल में इसी झील पे रोने दे मुझे

हुस्न तकरीम सही चाहतीं ताज़ीम सही
हाथ अब आप शफ़क़-ताब में धोने दे मुझे