रंग अल्फ़ाज़ का अल्फ़ाज़ से गहरा चाहूँ
बात करने के लिए अपना ही लहजा चाहूँ
है थकन ऐसी मिरा पार उतरना है मुहाल
तिश्नगी वो है कि बहता हुआ दरिया चाहूँ
कम-नज़र है जो करे तेरी सताइश महदूद
तू वो शहकार है मैं जिस को सरापा चाहूँ
तुझ पे रौशन मिरे हालात की ज़ंजीरें हैं
रोक लेना जो कभी तुझ से बिछड़ना चाहूँ
मुफ़लिसी लाख सही दौलत-ए-नायाब है ये
मैं तिरे ग़म के एवज़ क्यूँ ग़म-ए-दुनिया चाहूँ
ग़म है सन्नाटों में क़दमों के निशाँ तक 'राशिद'
वो अंधेरा है कि दीवारों से रस्ता चाहूँ

ग़ज़ल
रंग अल्फ़ाज़ का अल्फ़ाज़ से गहरा चाहूँ
मुमताज़ राशिद