इरम के नूर से तीरा मकाँ जलाए गए
चराग़ हम थे कहाँ के कहाँ जलाए गए
हमीं को उस ने पयम्बर किया मशीअ'त का
हमीं से राज़-ए-मशीअ'त मगर छुपाए गए
कभी तो हम पे खुलेंगे ख़ुशी के दरवाज़े
इसी उमीद पे हम तेरे ग़म उठाए गए
जो कल तलक रहे आसी ख़िताब-ए-महफ़िल में
वो लोग आज तिरे नाम से बुलाए गए
उगल रहे थे जो लावा ग़म-ए-तअ'स्सुब का
हमारे ख़ूँ से वो आतिश-फ़िशाँ बुझाए गए
रह-ए-हयात में भड़की है जब निफ़ाक़ की आग
मगर इस आग का लुक़्मा हमीं बनाए गए
रफ़ू किया किए चाक-ए-वफ़ा-ओ-तार-ए-क़बा
वो रूठते रहे और हम उन्हें मनाए गए

ग़ज़ल
इरम के नूर से तीरा मकाँ जलाए गए
राम अवतार गुप्ता मुज़्तर