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रक्खे हर इक क़दम पे जो मुश्किल की आगही | शाही शायरी
rakkhe har ek qadam pe jo mushkil ki aagahi

ग़ज़ल

रक्खे हर इक क़दम पे जो मुश्किल की आगही

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

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रक्खे हर इक क़दम पे जो मुश्किल की आगही
मिलती है उस को राह से मंज़िल की आगही

सीखा है आदमी ने कई तजरबों के बा'द
तूफ़ान से ही मिलती है साहिल की आगही

उस का ख़ुदा से राब्ता ही कुछ अजीब है
दुनिया कहाँ समझती है साइल की आगही

नज़रों का ए'तिबार तो है फिर भी मेरा दिल
है इक सहीफ़ा जिस में मसाइल की आगही

दिन-रात जिस के प्यार में रहती हूँ बे-क़रार
उस को नहीं है क्यूँ दिल-ए-बिस्मिल की आगही

यादों के इक हुजूम में रह कर पता चला
तन्हाई भी तो रखती है महफ़िल की आगही

ख़ंजर का ए'तिबार नहीं वो तो साफ़ है
लेकिन मिलेगी ख़ून से क़ातिल की आगही

मश्क़-ए-सुख़न 'सबीला' निखारेगी फ़न को और
मतलूब है कुछ और अभी दिल की आगही