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रखते हैं दुश्मनी भी जताते हैं प्यार भी | शाही शायरी
rakhte hain dushmani bhi jatate hain pyar bhi

ग़ज़ल

रखते हैं दुश्मनी भी जताते हैं प्यार भी

पुरनम इलाहाबादी

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रखते हैं दुश्मनी भी जताते हैं प्यार भी
हैं कैसे ग़म-गुसार मिरे ग़म-गुसार भी

अफ़्सुर्दगी भी रुख़ पे है उन के निखार भी
है आज गुल्सिताँ में ख़िज़ाँ भी बहार भी

पीता हूँ मैं शराब-ए-मोहब्बत तो क्या हुआ
पीता है ये शराब तो पर्वरदिगार भी

मिलने की है ख़ुशी तो बिछड़ने का है मलाल
दिल मुतमइन भी आप से है बे-क़रार भी

आ कर वो मेरी लाश पे ये कह के रो दिए
तुम से हुआ न आज मिरा इंतिज़ार भी

ऐ दोस्त ब'अद-ए-मर्ग भी मैं हूँ शिकस्ता-हाल
दिल की तरह से टूटा हुआ है मज़ार भी

'पुरनम' ये सब करम है 'क़मर' का जो आज-कल
होता है अहल-ए-फ़न में तुम्हारा शुमार भी