रखता है सुल्ह सब से दिल उस का प मुझ से जंग
ग़ैरों के हक़ में मोम है और मेरे हक़ में संग
कैसा विसाल किस का फ़िराक़ और कहाँ का इश्क़
थी आलम-ए-जवानी की बस ये भी इक तरंग
क्या तब मिलेगी आह मुझे आरज़ू-ए-दिल
मर जाएगी तड़प के मिरे जी की जब उमंग
हैराँ मैं अपने हाल पे चूँ आईना नहीं
आलम के मुँह को देख के मैं रह गया हूँ दंग
आता है क्या नज़र उसे शोले में शम्अ के
देता है जान-बूझ के क्यूँ अपना जी पतंग
लेता था नाम ग़ैर निकल आया मेरा नाम
आख़िर झलक गया है मोहब्बत का रंग-ढंग
वाक़िफ़ नहीं निशाँ से मैं उस यार के 'हसन'
जिस के लिए उड़ा दिया सब अपना नाम-ओ-नंग
ग़ज़ल
रखता है सुल्ह सब से दिल उस का प मुझ से जंग
मीर हसन