रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या
फिर वफ़ा के मुजरिमों में मेरा नाम आया तो क्या
मेरे क़ातिल तुझ को आख़िर कौन समझाए ये बात
पर-शिकस्ता हो के कोई ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
फिर वो बुलवाया गया है कर्बला-ए-अस्र में
कूफ़ियों को फिर से शौक़-ए-एहतिमाम आया तो क्या
खो चुकी सारी बसीरत सो चुके अहल-ए-किताब
आसमानों से कोई ताज़ा पयाम आया तो क्या
जब कि उन आँखों की मशअल बाम पर रौशन नहीं
शहर में यासिर कोई माह-ए-तमाम आया तो क्या
ग़ज़ल
रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या
आतिफ़ वहीद 'यासिर'