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रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या | शाही शायरी
rahzanon ke hath sara intizam aaya to kya

ग़ज़ल

रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या

आतिफ़ वहीद 'यासिर'

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रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या
फिर वफ़ा के मुजरिमों में मेरा नाम आया तो क्या

मेरे क़ातिल तुझ को आख़िर कौन समझाए ये बात
पर-शिकस्ता हो के कोई ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या

फिर वो बुलवाया गया है कर्बला-ए-अस्र में
कूफ़ियों को फिर से शौक़-ए-एहतिमाम आया तो क्या

खो चुकी सारी बसीरत सो चुके अहल-ए-किताब
आसमानों से कोई ताज़ा पयाम आया तो क्या

जब कि उन आँखों की मशअल बाम पर रौशन नहीं
शहर में यासिर कोई माह-ए-तमाम आया तो क्या