रहने वालों को तिरे कूचे के ये क्या हो गया
मेरे आते ही यहाँ हंगामा बरपा हो गया
तेरा आना था तसव्वुर में तमाशा शम्अ-रू
मेरे दिल पर रात परवानों का बलवा हो गया
ज़ब्त करता हूँ वले इस पर भी है ये जोश-ए-अश्क
गिर पड़ा जो आँख से क़तरा वो दरिया हो गया
इस क़दर माना बुरा मैं ने अदू का सुन के नाम
आख़िर उस की ऐसी बातों का तमाशा हो गया
क्या ग़ज़ब है इल्तिजा पर मौत भी आती नहीं
तल्ख़-कामी पर हमारी ज़हर मीठा हो गया
देख यूँ ख़ाना-ख़राबी ग़ैर वाँ क़ाबिज़ हुआ
जिस के घर को हम ये समझे थे कि अपना हो गया
ग़ज़ल
रहने वालों को तिरे कूचे के ये क्या हो गया
मीर तस्कीन देहलवी