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रही अगरचे निगारों की मेहरबानी भी | शाही शायरी
rahi agarche nigaron ki mehrbani bhi

ग़ज़ल

रही अगरचे निगारों की मेहरबानी भी

असअ'द बदायुनी

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रही अगरचे निगारों की मेहरबानी भी
बहुत ख़राब कटी रात भी जवानी भी

तुझे गँवा के तिरे वासतों का क्या करते
इसी लिए तो न रक्खी कोई निशानी भी

दिल-ओ-निगाह के रस्तों में कौन हाइल है
कि हम पे बंद हुए रौशनी भी पानी भी

अगर लबों से न निकले अगर दिलों में रहे
बहुत नई है अभी बात इक पुरानी भी

अज़ाब-ए-सोहबत-ए-ना-जिंस के शिकार हैं हम
ख़ुदा ज़मीं पे हमें दे हमारा सानी भी