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रहे वो ज़िक्र जो लब-हा-ए-आतिशीं से चले | शाही शायरी
rahe wo zikr jo lab-ha-e-atishin se chale

ग़ज़ल

रहे वो ज़िक्र जो लब-हा-ए-आतिशीं से चले

वहीद अख़्तर

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रहे वो ज़िक्र जो लब-हा-ए-आतिशीं से चले
चले वो दूर जो रफ़्तार-ए-सात्गीं से चले

हज़ारों साल सफ़र कर के फिर वहीं पहुँचे
बहुत ज़माना हुआ था हमें ज़मीं से चले

ख़िरद बनी रही ज़ंजीर-ऐ-पा-ऐ-शौक़ मगर
जुनूँ के जितने भी हैं सिलसिले हमीं से चले

फ़ुरात जीत के भी तिश्ना-लब रही ग़ैरत
हज़ार तीर-ए-सितम ज़ुल्म की कमीं से चले

ज़माना एक ही रस्ते पे ला के छोड़ेगा
रवाँ है एक ही धारा कोई कहीं से चले

गुमान-ओ-शक के दो-राहे पे हम से आ के मिले
वो क़ाफ़िले जो किसी मंज़िल-ए-यक़ीं से चले

हमें शिकस्त-ए-हरीफ़ां का भी मलाल रहा
शिकस्ता-दिल जो हम उस बज़्म-ए-दिल-नशीं से चले

तमाम गुमरहियाँ दैर और हरम में पलीं
तमाम सिलसिला-ए-कुफ़्र अहल-ए-दीं से चले

'वहीद' सैल-ए-क़यामत ने राह रोकी थी
जो बन के अश्क हम उस चश्म-ऐ-नाज़नीनीं से चले