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रहे नौ-रोज़ इशरत-आफ़रीं जोश-ए-बहार-अफ़्ज़ा | शाही शायरी
rahe nau-roz ishrat-afrin josh-e-bahaar-afza

ग़ज़ल

रहे नौ-रोज़ इशरत-आफ़रीं जोश-ए-बहार-अफ़्ज़ा

मह लक़ा चंदा

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रहे नौ-रोज़ इशरत-आफ़रीं जोश-ए-बहार-अफ़्ज़ा
गुल-अफ़शाँ है करम तेरा चमन में दहर के हर जा

न पूछो कोई ऐश-ओ-ख़ुर्रमी को अहद में उस के
कि जिस के फ़ैज़ से घर घर है दौर-ए-साग़र-ए-सहबा

अरस्तू-जाह वो फ़र्रुख़-नज़ाद-ए-अहल-ए-आलम है
कि जिस के फ़ज़्ल-ओ-बख़्शिश का जहाँ में है अलम बरपा

दुआ है ये मवाली की तसद्दुक़ से अइम्मा के
रखे साए में अपने लुत्फ़ के तुझ को अली मौला

नहीं कुछ ज़ेब ऐ मेहर-ए-सिपहर-ए-मा'दलत इस में
अयाँ 'चंदा' पे जो कुछ है नवाज़िश ये करम-फ़रमा