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रह-ए-उल्फ़त में यूँ तो का'बा-ओ-बुत-ख़ाना आता है | शाही शायरी
rah-e-ulfat mein yun to kaba-o-but-KHana aata hai

ग़ज़ल

रह-ए-उल्फ़त में यूँ तो का'बा-ओ-बुत-ख़ाना आता है

मानी जायसी

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रह-ए-उल्फ़त में यूँ तो का'बा-ओ-बुत-ख़ाना आता है
जबीं झुकती है लेकिन जब दर-ए-जानाना आता है

सफ़र तय हो चुका शायद दर-ए-जानाना आता है
कि दिल सू-ए-जबीं सज्दे को बे-ताबाना आता है

तिरी उम्मीद-ए-वस्ल-ए-हूर है इक ज़ोहद पर मब्नी
मगर वाइ'ज़ मुझे हर शेवा-ए-रिंदाना आता है

हँसी आए तुझे या नींद लेकिन आह मुझ को तो
बस ऐ बेगाना-ए-दर्द एक ही अफ़्साना आता है

दिल उजड़ा जब तो फिर बाक़ी कहाँ दुनिया में आबादी
निगाहें जिस तरफ़ उट्ठीं नज़र वीराना आता है

हमेशा हस्ब-ए-इस्तेदाद है फ़ैज़ान-ए-क़ुदरत भी
बहार आई चमन में दश्त में दीवाना आता है

ठिकाना फिर ग़म-ए-दुनिया ने पाया बा'द मुद्दत के
कि अपने होश में फिर 'मानी'-ए-दीवाना आता है