EN اردو
रह-ए-तलब में हमें ग़म पे ग़म नज़र आए | शाही शायरी
rah-e-talab mein hamein gham pe gham nazar aae

ग़ज़ल

रह-ए-तलब में हमें ग़म पे ग़म नज़र आए

प्रकाश नाथ प्रवेज़

;

रह-ए-तलब में हमें ग़म पे ग़म नज़र आए
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ मगर फिर भी कम नज़र आए

वहीं वहीं मिरा ज़ौक़-ए-सुजूद मचला है
जहाँ जहाँ तिरे नक़्श-ए-क़दम नज़र आए

मिरे शुऊर की आँखों में आ गए आँसू
मुझे असीर-ए-अलम जब सनम नज़र आए

तिरी तलाश में ये भी मक़ाम आया है
जिधर निगाह उठी सिर्फ़ हम नज़र आए

वो जल्वा-बार हैं दिल के निगार-ख़ाने में
जो मेरी चश्म-ए-तमाशा को कम नज़र आए