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रह-ए-ख़ुलूस में बेहतर है सर झुका रखना | शाही शायरी
rah-e-KHulus mein behtar hai sar jhuka rakhna

ग़ज़ल

रह-ए-ख़ुलूस में बेहतर है सर झुका रखना

जमील नज़र

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रह-ए-ख़ुलूस में बेहतर है सर झुका रखना
वो सर-कशीदा अगर है तो सर सिवा रखना

यही वो सोच है जिस की तलाश थी मुझ को
ये बात अपने ख़यालों से अब जुदा रखना

न क़ुर्ब-ए-ज़ात ही हासिल न ज़ख्म-ए-रुस्वाई
अजीब लगता है अब ख़ुद से राब्ता रखना

तमाम शहर को आतिश-कदा बनाना है
दिलों की आग सलीक़े से जा-ब-जा रखना

बड़ा अजीब है तहज़ीब-ए-इर्तिक़ा के लिए
तमाम उम्र किसी इक को हम-नवा रखना

कमाल-ए-हिर्स है जज़्ब-ओ-तलब की दुनिया में
बदन को रूह की आवाज़ से जुदा रखना

बुलंद कर के ज़रा हौसलों की दीवारें
दिया जला के हवा को चराग़-पा रखना

शिकस्त-ओ-रेख़्त की दुनिया में ज़िंदा रहने की
बिखर बिखर के सिमटने का हौसला रखना

ख़ुद अपनी ज़ात पे तन्क़ीद के मुरादिफ़ है
किसी के सामने दानिस्ता आईना रखना

जिसे मिली है ये दौलत वही समझता है
अजीब नेमत-ए-उज़मा है दिल दुखा रखना

हो जब भी जाना किसी के निगार-ख़ाने में
'नज़र' ख़याल ज़रा ख़द्द-ओ-ख़ाल का रखना