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रह-ए-कहकशाँ से गुज़र गया हमा-ईन-ओ-आँ से गुज़र गया | शाही शायरी
rah-e-kahkashan se guzar gaya hama-in-o-an se guzar gaya

ग़ज़ल

रह-ए-कहकशाँ से गुज़र गया हमा-ईन-ओ-आँ से गुज़र गया

वक़ार बिजनोरी

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रह-ए-कहकशाँ से गुज़र गया हमा-ईन-ओ-आँ से गुज़र गया
कोई बज़्म-ए-नाज़-ओ-नियाज़ में मैं हद-ओ-कमाँ से गुज़र गया

न कोई जहाँ से गुज़र सके ये वहाँ वहाँ से गुज़र गया
तिरे इश्क़ में दिल-ए-मुब्तला हर इक इम्तिहाँ से गुज़र गया

तिरे इश्क़-ए-सीना-फ़िगार का ये शुऊर क़ाबिल-ए-दाद है
वही तीर दिल से लगा लिया जो तिरी कमाँ से गुज़र गया

तिरे हुस्न-ए-सज्दा-नवाज़ का ये करम जबीन-ए-नियाज़ पर
कि मिले हरम ही हरम मुझे मैं जहाँ जहाँ से गुज़र गया

मिरे नासेहा तिरा शुक्रिया मिरे हाल पर मुझे छोड़ दे
जो तिरी ज़मीं पर मुहीत है मैं उस आसमाँ से गुज़र गया

ये निज़ाम बज़्म-ए-हयात का अभी ख़लफ़शार की नज़्र था
वो तो शुक्र है कि फ़साना-ख़्वाँ मिरी दास्ताँ से गुज़र गया

रहे क़ैद-ओ-बंद की लज़्ज़तें कि अज़िय्यतें भी हैं राहतें
मैं क़फ़स में आते ही सरहद-ए-ग़म-ए-आशियाँ से गुज़र गया

न 'वक़ार' दैर से वास्ता न हरम से मुझ को कोई ग़रज़
किसी बे-निशाँ की तलाश में मैं हर इक निशाँ से गुज़र गया