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रह-ए-जुस्तुजू में भटक गए तो किसी से कोई गिला नहीं | शाही शायरी
rah-e-justuju mein bhaTak gae to kisi se koi gila nahin

ग़ज़ल

रह-ए-जुस्तुजू में भटक गए तो किसी से कोई गिला नहीं

इफ़्फ़त अब्बास

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रह-ए-जुस्तुजू में भटक गए तो किसी से कोई गिला नहीं
कि हम उस के हो के न जी सके वो हमारा बन के मिला नहीं

मिरे फ़िक्र-ओ-फ़न पे मुहीत है जो तसव्वुर एक ख़ुदा-नुमा
है तलाश उस की नहीं पता वो ख़ुदा भी है कि ख़ुदा नहीं

जो मिली नहीं मुझे आगही है मिरी निगाह से अजनबी
हो रग-ए-गुलू से क़रीब भी तो यही कहेंगे मिला नहीं

जो बसीर हो वो नज़र भी दे मुझे आगही का हुनर भी दे
मगर अब तू मेरी ख़बर भी दे कि मुझे ख़ुद अपना पता नहीं

हैं 'शहाब' मेरे हवास गुम कि हर एक शब है शब-ए-दहुम
जो बुझा तो बुझ के ही रह गया है चराग़ फिर से जला नहीं