रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही
कभी नज़्र-ए-ख़ाक-ए-सफ़र रही कभी मोतियों से भरी रही
तिरी इक निगाह से साक़िया वो बहार-ए-बे-ख़बरी रही
गुल-ए-तर वही गुल-ए-तर रहा वही डाल डाल हरी रही
तिरी बे-रुख़ी की निगाह थी कि जो हर ख़ता से बरी रही
मिरी आरज़ू की शराब थी कि जो जाम जाम भरी रही
दम-ए-मर्ग भी मिरी हसरतें हद-ए-आरज़ू से न बढ़ सकीं
उसी काले देव की क़ैद में मिरे बचपने की परी रही
दिल-ए-ग़म-ज़दा पे गुज़र गया है वो हादसा कि मिरे लिए
न तो ग़म रहा न ख़ुशी रही न जुनूँ रहा न परी रही
वही 'तर्ज़' तुझ पे रहीम है ये उसी का फ़ैज़-ए-करीम है
कि असातिज़ा के भी रंग में जो ग़ज़ल कही वो खरी रही
ग़ज़ल
रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही
गणेश बिहारी तर्ज़