रह-ए-हयात में वो भी मक़ाम आएगा
यगाना काम न बेगाना काम आएगा
सुरूर-ए-बादा-ए-रंज-ओ-ग़म-ए-हयात कभी
न काम आया किसी के न काम आएगा
हमारी ज़िंदगी-ए-मुख़्तसर का सरमाया
हमारे बा'द ज़माने के काम आएगा
बदल चुकी है फ़ज़ा अब निज़ाम-ए-आलम की
न काम दाना किसी के न दाम आएगा
यक़ीं है तिश्ना-लबों को कि उन की महफ़िल में
वो जब भी आएगा बादा-ब-जाम आएगा
वो जिस की याद सताती है रात-दिन 'फ़ारिग़'
न क़ब्ल-ए-सुब्ह न वो बा'द-ए-शाम आएगा

ग़ज़ल
रह-ए-हयात में वो भी मक़ाम आएगा
लक्ष्मी नारायण फ़ारिग़