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रग-ओ-पै में सरायत कर गया वो | शाही शायरी
rag-o-pai mein sarayat kar gaya wo

ग़ज़ल

रग-ओ-पै में सरायत कर गया वो

फ़रीद परबती

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रग-ओ-पै में सरायत कर गया वो
मुझी को मुझ से रुख़्सत कर गया वो

न ठहरा कोई मौसम वस्ल-ए-जाँ का
मुतअय्यन राह फ़ुर्क़त कर गया वो

मन ओ तू की गिरी दीवार सर पर
बयाँ कैसी हक़ीक़त कर गया वो

दरून-ए-ख़ाना से ग़ाफ़िल है लेकिन
बरून-ए-ख़ाना ज़ीनत कर गया वो

सर-ए-शब ही में अक्सर जल बुझा हूँ
हर इक ख़्वाहिश को लत-पत कर गया वो

हवादिस का वो तुंद ओ शोख़ झोंका
समर दिल का अकारत कर गया वो

मता-ए-ग़म छुपा कर क्यूँ न रक्खूँ
हवाले ये अमानत कर गया वो

तुम्हें भी भूलने की कोशिशें कीं
कि ख़ुद पर भी क़यामत कर गया वो

सुकूँ-आमेज़ लम्हों में 'फ़रीद' अब
फ़रोग़-ए-रंज-ओ-मेहनत कर गया वो