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रफ़्ता रफ़्ता डर जाएँगे | शाही शायरी
rafta rafta Dar jaenge

ग़ज़ल

रफ़्ता रफ़्ता डर जाएँगे

मुशताक़ सदफ़

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रफ़्ता रफ़्ता डर जाएँगे
क़िस्तों में हम मर जाएँगे

मैं ने चुग़ली खाई तो फिर
दुश्मन भूखों मर जाएँगे

हिकमत से आरी मंसूबे
कितनों के दर पर जाएँगे

अंदर ऐसी ख़ामोशी है
सन्नाटे भी डर जाएँगे

हैवानों से बच कर रहिए
सहरा को भी चर जाएँगे