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रफ़्ता रफ़्ता आरज़ूओं का ज़ियाँ होने को है | शाही शायरी
rafta rafta aarzuon ka ziyan hone ko hai

ग़ज़ल

रफ़्ता रफ़्ता आरज़ूओं का ज़ियाँ होने को है

सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही

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रफ़्ता रफ़्ता आरज़ूओं का ज़ियाँ होने को है
दरहमी कुछ ऐसी ज़ेर-ए-आसमाँ होने को है

पा-शिकस्ता हो गए हैं हम कड़कती धूप में
शाम-ए-ग़म अब देखिए कब और कहाँ होने को है

बे-रुख़ी गर आप की ऐ जान-ए-जाँ यूँ ही रही
आख़िरश कार-ए-वफ़ा दिल पर गराँ होने को है

डर है दिल आसूदा-ए-हिरमाँ न हो जाए कहीं
आग थी रौशन जहाँ वो ख़ाक-दाँ होने को है

चश्मक-ए-बर्क़-ओ-शरर से रात आँखों में कटी
सुन रहे हैं सुब्ह-ए-नौ अब ज़रफ़िशाँ होने को है

कल तलक तो चल रही थी दिल-जलों की दास्ताँ
आज उन का ज़िक्र ज़ेब-ए-दास्ताँ होने को है

इस क़दर है हसरत-ए-नाकाम का 'राही' ग़ुबार
नक़्श-पा-ए-आरज़ू भी बे-निशाँ होने को है