रफ़्ता रफ़्ता आरज़ूओं का ज़ियाँ होने को है
दरहमी कुछ ऐसी ज़ेर-ए-आसमाँ होने को है
पा-शिकस्ता हो गए हैं हम कड़कती धूप में
शाम-ए-ग़म अब देखिए कब और कहाँ होने को है
बे-रुख़ी गर आप की ऐ जान-ए-जाँ यूँ ही रही
आख़िरश कार-ए-वफ़ा दिल पर गराँ होने को है
डर है दिल आसूदा-ए-हिरमाँ न हो जाए कहीं
आग थी रौशन जहाँ वो ख़ाक-दाँ होने को है
चश्मक-ए-बर्क़-ओ-शरर से रात आँखों में कटी
सुन रहे हैं सुब्ह-ए-नौ अब ज़रफ़िशाँ होने को है
कल तलक तो चल रही थी दिल-जलों की दास्ताँ
आज उन का ज़िक्र ज़ेब-ए-दास्ताँ होने को है
इस क़दर है हसरत-ए-नाकाम का 'राही' ग़ुबार
नक़्श-पा-ए-आरज़ू भी बे-निशाँ होने को है
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता आरज़ूओं का ज़ियाँ होने को है
सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही