EN اردو
रब्त कैसा था दिल-ओ-दीदा-ओ-जाँ में पहले | शाही शायरी
rabt kaisa tha dil-o-dida-o-jaan mein pahle

ग़ज़ल

रब्त कैसा था दिल-ओ-दीदा-ओ-जाँ में पहले

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

;

रब्त कैसा था दिल-ओ-दीदा-ओ-जाँ में पहले
था कोई और जहाँ अपने जहाँ में पहले

दिल धड़कता है तो रोने की सदा आती है
एक हंगामा सा रहता था मकाँ में पहले

ख़ाक सी उड़ती है सीने में यक़ीं के हर-दम
क़ाफ़िले आ के ठहरते थे गुमाँ में पहले

यक-ब-यक दिल से छलक पड़ती थी इक मौज-ए-तरब
लज़्ज़त-ए-जाँ थी अजब शोरिश-ए-जाँ में पहले

अब तरद्दुद है ताम्मुल है तास्सुफ़ है तमाम
ताब थी ग़म में तमन्ना थी फ़ुग़ाँ में पहले

अब जो है गर्मी-ए-बाज़ार तो हम इस में नहीं
हम भी थे गर्मी-ए-बाज़ार जहाँ में पहले

लहलहाता है जो क़ामत में क़यामत का चमन
ये सजावट तो न थी सर्व-ए-रवाँ में पहले

सफ़-ब-सफ़ बंदिश-ए-आ'ज़ा का बरहना चम-ओ-ख़म
ऐसी यूरिश भी न देखी थी जहाँ में पहले

ये कशिश कब थी भला काफ़-ए-करम में कि जो है
ये तपिश कब थी भला रू-ए-बुताँ में पहले